
धनंजय हमेशा से मुझे बहुत ही प्रभावित किया है । कठिन परिस्थितियों से लड़ते हुए इस बार आई. आई. टी. में बेहतर रैंक भी लाया है । मैंने सोचा कि इस बार दैनिक भास्कर में क्यों न धनंजय की ही कहानी लिख दी जाये ।
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कभी नई किताबों से नहीं पढ़ा, अब आईआईटी इंजीनियर बनेगा धनंजय
बीते गुरुवारको धनंजय के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। आईआईटी का रिजल्ट चुका था, लेकिन सर्वर धीमा चल रहा था और बच्चों का इंतजार बढ़ता जा रहा था। धनंजय भी इनमें शामिल था। जब तक उसे सिलेक्शन का पता नहीं चला था, धनंजय आत्मविश्वास से लबरेज था। रिजल्ट का पता चलते ही उसकी आंखें सब्र का बांध संभाल नहीं सकीं। वह फूट-फूटकर रो रहा था। जिस लक्ष्य को हासिल करने के लिए धनंजय और उसके माता-पिता ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी, वह उसने हासिल कर लिया था, लेकिन आंखें अब भी किस्मत पर भरोसा नहीं कर पा रही थीं। जिसने कभी नई किताब खरीदकर पढ़ाई नहीं की, प्राइवेट स्कूल नहीं गया, कई रातें भूखे पेट पढ़ाई कर गुजारी और जिसे संस्थान में आने से पहले आईआईटी के बारे में कुछ पता नहीं था, वह भला इतनी अच्छी रैंक से एंट्रेंस परीक्षा कैसे पास कर सकता है कि अपनी पसंद के संस्थान और ब्रांच में एडमिशन ले सके। धनंजय की निरक्षर मां तो अब भी फोन पर यही पूछ रही थीं कि इसका मतलब क्या होता है। धनंजय ने वह कर दिखाया जो बड़े स्कूलों में पढ़ने वाले सुविधा संपन्न छात्रों के लिए भी एक सपना होता है। उसकी आंखों में पुराने दिन तैर रहे थे और अनवरत बहते आंसुओं के साथ वह उन्हें समेटने की कोशिश कर रहा था। इसलिए नहीं कि भूल जाए, बल्कि वह उन्हें जिंदगी भर के लिए सहेजकर रखना चाहता था। उसे पता है कि यह कामयाबी का पहला पड़ाव है और बीते हुए दिन ही इस सफर में उसकी प्रेरणा बनेंगे।
बिहार के समस्तीपुर जिले के पटोरी गांव में रहते थे धनंजय के पिता शशिकांत महतो। पुश्तैनी जमीन थी, पढ़े-लिखे थे। गांव में मजदूरी कर पेट पालते थे, लेकिन जब छह बच्चे हो गए तो कमाई कम पड़ने लगी। वे गुजरात के सूरत चले गए। कपड़ा मिल में काम करने लगे। दोनों शिफ्ट में काम करते, जिससे ज्यादा पैसा बच्चों के लिए भेज सकें। आमदनी तो बढ़ गई, लेकिन कुछ साल बाद वे इतने बीमार रहने लगे कि काम करना मुश्किल हो गया। वे चौबीसों घंटे रुई के बीच में रहते थे और उड़ती हुई रुई उनके फेफड़े को खराब कर रही थी। हालत यह हो गई कि मिल मालिक ने नौकरी छोड़ने को कह दिया। शशिकांत ने बहुत मिन्नतें की, बच्चों का पेट भरने की जिम्मेदारी के बारे में बताया। मालिक ने तरस खाते हुए दस हजार रुपए उन्हें दिए और गांव जाने को कह दिया।
मां रेणुका देवी की बड़ी इच्छा थी कि बच्चे किसी तरह पढ़-लिख जाएं। खुद कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन बच्चों को सुबह स्कूल भेजने में कोई कोताही नहीं करती थी। गांव के उस सरकारी स्कूल में पढ़ाई अच्छी नहीं होती थी, लेकिन दूसरा विकल्प भी नहीं था। धनंजय छठी कक्षा में था जब पिता सूरत से लौट आए। मजदूरी करना अब संभव नहीं था, तो उन्हीं दस हजार रुपयों से शशिकांत ने दुकान खोल ली। दुकान इतनी छोटी थी कि बाहर से दिखती भी नहीं थी। वे दिन भर इसी में बैठे रहते। इस इंतजार में कि ग्राहक आए तो कुछ बिक्री हो और बच्चों के लिए खाने का इंतजाम हो सके। धनंजय खूब मेहनत करता। उसे कभी इतने पैसे नहीं मिले कि नई किताबें खरीद सके। किसी से पुरानी किताबें उधार लेकर किसी तरह वह अपना काम चलाता था। दुकान में जिस दिन बिक्री नहीं होती, उस दिन भूखे पेट सोने की मजबूरी होती थी। बच्चों को भूखा देख रेणुका देवी की आत्मा कराह उठती, लेकिन उनके हाथ में कुछ नहीं था। वे बच्चों को समझातीं कि इस गरीबी से निकलने का एक ही जरिया है, पढ़ाई। धनंजय को उनकी बात बचपन में ही समझ गई थी। जब वह दसवीं में पहुंचा तो पिता ज्यादा बीमार रहने लगे और अकेली मां को सहारा देने के लिए उसे दुकान में भी समय देना पड़ता। फिर भी वह अच्छे अंकों से दसवीं पास हुआ और अब आगे पढ़ाई की चुनौती थी। इसी दौरान धनंजय के शिक्षक ने उसे सुपर 30 के बारे में बताया। यह भी बताया कि टेस्ट देकर वह प्रवेश ले सकता है तो धनंजय फीस के 50 रुपए जमा करने में लग गया। तीन-चार दिन में दुकान से किसी तरह पैसा बचाकर वह बिना टिकट ही ट्रेन से पटना गया। मुझसे मिला और संस्थान का हिस्सा बन गया। बीते दो वर्षों में उसने अपनी मेहनत और लगन से सबका दिल जीता। क्लास में हर सवाल हल करने में वह सबसे आगे रहता और अपने सहपाठियों की भी खूब मदद करता।
छोटी उम्र में इतना संघर्ष झेल चुके धनंजय की आंखें रिजल्ट आने के बाद भावनाओं को संभाल नहीं पा रही थीं। मैंने गौर से देखा तो उसने आज भी वही पैंट-शर्ट पहनी थी जो पहनकर वह पहली बार मुझसे मिलने आया था। मैंने पूछा तो उसने बताया कि उसके पास वही एक जोड़ी कपड़े हैं और बीते दो साल उसने इसी के साथ गुजारे हैं। मेरे आश्चर्य का भी ठिकाना नहीं रहा। ऐसे बच्चों की कामयाबी तो खुद मेरे लिए भी प्रेरणा है। रिजल्ट आने के बाद उनके गरीब मां-बाप से धन्यवाद के दो शब्द ही मेरे जीवन के लिए रक्त संचार का काम करते हैं। और इसीलिए हर साल मुझे भी इस दिन का इंतजार रहता है।
धनंजय ने तैयारी के दो साल एक ही जोड़ी कपड़े में बिताए।
निरक्षर माता-पिता के बेटे धनंजय ने आईआईटी प्रवेश परीक्षा में केवल कामयाबी हासिल की, बल्कि उसे इतनी अच्छी रैंकिंग मिली है कि वह अपनी पसंदीदा ब्रांच में किसी भी संस्थान में एडमिशन ले सकता है। दो साल पहले तक उसे यह पता नहीं था कि पढ़कर क्या बनना है, लेकिन मां की प्रेरणा और अपनी मेहनत के बूते वह आज अपनी किस्मत बदलने के रास्ते पर चल पड़ा हे।
Source: Anand Kumar | Super30